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    Jayanti news: 25 दिसम्बर को महामना मदन मोहन मालवीय की जयंती पर विशेष


    महान राष्ट्रवादी चिंतक तथा भारतीय संस्कृति के उपासक महामना पं. मदनमोहन मालवीय

    महामना पंडित मदनमोहन मालवीय एक महान व्यक्तित्व के धनी थे, जो महान संस्कृति निष्ठ थे तथा ईश्वर भक्ति व देशभक्ति उनके जीवन के दो मूलमंत्र थे। उन्होंने सदैव मानव समाज की, देश की एवं हर व्यक्ति की भलाई चाही थी एवं उसी भलाई में अपना पूरा जीवन प्रयत्नशील रहे। महामना मालवीय को आधुनिक भारत का निर्माता कहा जाता है। उन्हें देश ने महामना की उपाधि से नवाजा था। उन्होंने कहा था कि युवकों को जब अच्छी शिक्षा मिलेगी, तभी हमारा देश उन्नति कर सकता है। 


    उन्होंने शिक्षा की अलख जगाकर पूरे राष्ट्र को शिक्षा के क्षेत्र में आगे लाने का प्रयास किया तथा अपने प्रयासों से हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की, जो आजकल काशी विश्वविद्यालय कहा जाता है। यह विश्वविद्यालय देश में ही नहीं, अपितु विदेशों में भी शिक्षा के क्षेत्र में कीर्ति स्थापिता कर रहा है, वे स्वयं इस विश्वविद्यालय के 20 वर्षों तक कुलपति के पद पर रहे तथा शिक्षा के क्षेत्र में नये आयाम स्थापित किये।


    मदन मोहन मालवीय का जन्म 25 दिसम्बर, 1861 ई. को एक गरीब परिवार में कथावाचक बृजनाथ चतुर्वेदी के घर प्रयाग में हुआ। कुशाग्र बुद्धि होने के कारण उन्हें 1879 में गवर्नमैंट स्कूल से हाई स्कूल की परीक्षा, म्योर सैन्ट्रल कॉलेज से एफए तथा बीए की परीक्षा पास की तथा सरकारी स्कूल में 40 रूपये वेतन पर अध्यापक नियुक्त हुये। वे कहते थे कि माता-पिता को अपने बच्चों की प्रारम्भिक शिक्षा पर अधिक ध्यान देना चाहिए।

    छोटी अवस्था में ही उनके हृदय में दीन-दु:खी और पीडि़त जनों के प्रति इतनी करूणा भावना थी कि वे स्वयं का लाभ-हानि अथवा कष्ट सहन करने की परवाह न करके, उनकी सहायता के लिये तैयार हो जाते थे। वे सभी देशवासियों के अभावों तथा कष्टों को अनुभव करके उनकी सेवा में जुटे रहते थे। वे अध्यापन कार्य के साथ-साथ समाज सेवा में सदैव लगे रहते थे। उन्होंने कई वर्षों तक ‘हिन्दुस्तान’ नामक साप्ताहिक पत्रिका का सम्पादन किया तथा बाद में ‘अभ्युदय’ पत्रिका प्रकाशित की। 1909 में अंग्रेजी के ‘लीडर’ दैनिक पत्र का प्रकाशन किया। उन्होंने कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह के प्रोत्साहित करने पर परिश्रम करके एलएलबी की डिग्री हासिल कर प्रयाग हाईकोर्ट में वकालत शुरू की। उन्होंने वकालत के पेशे में लगन, परिश्रम व ईमानदारी से काम करके यश व कीर्ति कमाया, वे जिस मुकदमें को हाथ में लेते थे, उसकी सफलता में पूर्ण प्रयत्न करते थे। महात्मा गांधी मालवीय जी को नवरत्न मानते थे। मालवीय जी के विषय में गांधीजी कहते थे कि - ‘मैं मालवीय जी से बड़ा देशभक्त किसी को नहीं मानता, मैं सदैव उनकी पूजा करता हूँ।’


    पं. मदनमोहन मालवीय वास्तव में सच्चे अर्थों में एक प्रखर राष्ट्रवादी पुरूष थे, जिनमें देशभक्ति, सत्यता और त्याग की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। वे मृदुभाषी थे तथा उनकी बोली में एक विचित्र-सा माधुर्य था, वे देश की विभिन्न समस्याओं पर घंटो निर्भयता से व्याख्यान देते थे। अपने भाषण से वे लोगों को मंत्रमुग्ध कर देते थे। मालवीय जी असाधारण पुरूष थे, वे सदैव हर कार्य का श्रेय दूसरों को ही दिया करते थे, चाहे उस कार्य में उन्होंने स्वयं कड़ा परिश्रम किया हो। यश-कीर्ति की चाह से वह हमेशा दूर ही रहे। 


    राजनीतिक, धर्म, शिक्षा सभी विषयों पर उनका चिंतन मौलिक था। वे सदैव कहा करते थे - ‘दूसरों को उठाने की कामना करो, किसी को नीचा दिखाने की नहीं।’ अपने इसी गुण के कारण आजादी की लड़ाई के दिनों में जब कांग्रेस के दूसरे नेता जेलों में चले जाते थे, तो मालवीयजी उन सबकी जगह ले लेते थे तथा कांग्रेस के नरम दल और गरम दल के बीच पुल का काम करते थे।


    मालवीय जी की सनातन धर्म के प्रति अनन्य निष्ठा थी। वे सच्चे वैष्णव और विष्णु भक्त थे। इतने पर भी अपने धर्म-कर्म और अपनी हिन्दुत्व की भावना को कभी राष्ट्रहित में रूकावट नहीं बनने दिया। 1918 में उन्हें दिल्ली में कांग्रेस अधिवेशन का अध्यक्ष बनाया गया। वे 4 बार कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। मालवीय जी इम्पीरियल और केन्द्रीय कौंसिल के 6-6 वर्षों तक सदस्य रहे। वे कांग्रेस में रहकर भी सदैव दलगत राजनीति से दूर रहे तथा हिन्दुओं की भलाई के पक्षधर थे। 1923 व 1937 में हिन्दु महासभा के अध्यक्ष चुने गये। हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना में उनका महान योगदान रहा। वे कई बार साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष चुने गये। उन्हें दिसम्बर, 2014 को ‘भारत रत्न’ की उपाधि से नवाजा गया। उनके द्वारा स्थापित हिन्दु विश्वविद्यालय  में छात्रों को चरित्र निर्माण पर जोर दिया जाता था। उनका मुख्य ध्येय था कि हमारे देश के छात्र शुद्ध सात्विक, तेजस्वी तथा वीर पुरूष बने और हमारी प्रत्येक कन्या वीर माता बने, जो ईश्वर में विश्वास करे, प्रत्येक प्राणी का आदर करे, वीरता के साथ अन्याय का विरोध करे और आत्मसम्मान तथा सच्चाई के साथ जीविका का उपार्जन करते हुए अपने समाज तथा देश का कल्याण कर सके।


    मालवीय जी सच्चे हिंदू थे। जब वे गोलमेल सम्मेलन में भाग लेने इंग्लैण्ड गये तो साथ में गंगाजल ले गये थे। सामाजिक सुधार में और कुरीतियों की रोकथाम के लिये मालवीय जी ने अथक प्रयास किये। वे अछूतों को दीक्षा देने, मंदिरों में उनका प्रवेश कराने और कुओं व स्कूलों को अछूतों के लिए खोल देने के पक्षधर थे। उन्होंने शूद्रों को भी यज्ञोपवीत कराने का अधिकार माना। मनुष्यता की मालवीयजी जीती-जागती मिसाल थे, उनका हृदय कोमल और संवेदनशील था। वे पीडि़तों, दुखियों की सेवा के लिये सदैव तत्पर रहते थे, चाहे दरभंगा के भूकम्प पीडि़तों की सहायता हो या किसी छात्र को पढऩे के लिये आर्थिक सहायता की जरूरत हो। राष्ट्रभाषा हिंदी के उत्थान में, वे सदैव तत्पर रहे। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रथम अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा था कि हिन्दी एक दिन राष्ट्रभाषा बनेगी। कर्म ही उनका जीवन था। 


    अनेक संस्थाओं के जनक एवं सफल संचालक के रूप में उन्होंने कभी भी रोष अथवा कड़ी भाषा का प्रयोग नहीं किया। 1946 में उनकी मृत्यु हो गई। वास्तव में मालवीय जी आदर्शों, सिद्धांतों तथा नैतिकता के सच्चे पैरोकार थे। पत्रकारिता, वकालत, समाजसुधारक, मातृभाषा व राष्ट्र की सेवा करने वाले आदर्श पुरूष थे। उनके द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में एवं हिन्दुत्व को बचाने के लिये किये गये अथक प्रयासों को कभी भुलाया नहीं जा सकता तथा उन्होंने भारतीय संस्कृति को जोडऩे का जो कार्य किया, वह सदैव हमारे लिये प्रेरणादायक रहेंगे। आज की युवा पीढ़ी को चरित्रवान और कर्तव्यनिष्ठ बनने के लिये मालवीय जी के द्वारा दिखाये गये मार्ग पर चलने की आवश्यकता है।

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