Jayanti special :- गुरु गोबिन्द सिंह जयंती 29 दिसम्बर, 2022 पर विशेष , सवा लाख से एक लड़ाऊँ तबै गोबिन्द सिंह नाम कहाऊँ - वाहिगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतह’
सिक्खों के दसवें गुरु गुरु गोबिन्द सिंह ऐसे महापुरुष थे, जिन्होंने धर्म व देश की रक्षा के लिए अपने पुत्रों का बलिदान कर दिया था। गोबिन्द सिंह का जन्म उस समय हुआ था, जब मुगल शासक औरंगजेब के आतंक से भारतीय जनता भयभीत थी, मन्दिर तुड़वाये जा रहे थे तथा बल के प्रयोग से धर्म परिवर्तन कर मुसलमान बनने के लिए विवश किया जा रहा था। ऐसे विषम समय में गुरु गोबिन्दसिंह का जन्म पोष शुक्ल सप्तमी, सन् 1666 को पटना शहर में पिता गुरु तेग बहादुर तथा माता गुजरी के घर हुआ था। पिता गुरु तेग बहादुर अपने त्याग, शौर्य व बलिदान के लिए जाने जाते थे तथा माता गुजरी सरल, सहज व धार्मिक स्वभाव की थी। उनके बचपन का नाम गोबिन्द राय था। जब गोबिन्द राय की उम्र 9 वर्ष की थी, उनके पिता गुरु तेग बहादुर औरंगजेब की धर्मान्धता के कारण शहीद हुए। पिता का वध किये जाने का गोबिन्द राय के हृदय पर गहरा आघात लगा। उन्होंने औरंगजेब से टक्कर लेने की ठानी व योजनाबद्ध रूप से सैनिक तैयार किये। उन्होंने 8 वर्ष तक आनन्दपुर रहकर संस्कृत, फारसी व बृजभाषा का एकाग्रता से अध्ययन किया तथा अस्त्र-शस्त्र विद्या के संचालन में पारंगत हुए।
गोविन्द राय के मन में तुर्कों व मुगलों को मातृभूमि से खदेडऩे की कसक चलती रहती थी। जब लोगों ने उनसे प्रश्न किया कि हम मु_ीभर सैनिक शक्ति से विशाल मुगल सेना को कैसे परास्त करेंगे तो गोबिन्द राय ने तेजस्वी वाणी से उत्तर दिया ‘चिडिय़ों से मैं बाज लड़ाऊँ तबै गोबिन्द सिंह नाम कहलाऊँ, सवा लाख से एक लड़ाऊँ तबै गोबिन्द सिंह नाम कहलाऊँ’ अर्थात मैं चिडिय़ों को बाज का शिकार करना सिखाऊँगा। इस प्रकार लोगों श्रद्धालुओं में धर्म चेतना व राष्ट्र प्रेम की भावना जागृत करके उन्होंने मुगलों से लडाई छेड़ी व 1689 में प्रथम युद्ध लड़ा। वे पहाड़ी राजाओं की फौज को परास्त कर युद्ध में विजयी हुए। इस विजय के पश्चात् गोविन्द राय ने लोहगढ़, आनन्दगढ़, केशगढ़ और फतेहगढ़ में दुर्ग बनवाये। गुरु गोबिन्द सिंह का विवाह माता सुन्दरी देवी, माता जीतो व माता साहिबा देवी के साथ हुआ तथा उनके चार पुत्र शहबजादा अजीत सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह और फतेहसिंह पैदा हुए, जो गुरु गोबिन्द सिंह जी की भांति पराक्रमी व मातृभूमि के लिए समर्पित थे। गुरु जी ने 13 अप्रेल, 1699 को ‘खालसा पंथ’ की स्थापना की। उन्होंने 13 अप्रेल वैशाखी पर्व पर अपने शिष्य भक्तों को धर्म की देवी व गुरु के लिए कुर्बानी देने के लिए ललकारा तो दयाराम खत्री, धर्मदास जाट, भाई मोहकमचन्द धोबी, भाई साहबदास नाई और हिम्मत राय कुम्हार आगे आये। गुरुजी ने उनके जज्बे व हौंसले तथा धर्म के प्रति समर्पण को देखते हुए, उन्हें अमृत पिलाया व हलवा का प्रसाद खिलाकर ‘खालसा’ बनाया तथा ‘पांच प्यारे’ का नाम दिया। उन्हें ‘पंचककार’ अर्थात् पांच निशान, केश, कंघा, कड़ा, कच्छा व कृपाण हमेशा धारण करने की आज्ञा दी। इस प्रकार गुरुजी ने ‘खालसा पंथ’ की स्थापना की तथा ‘वाहेगुरुजी का खालसा, वाहेगुरुजी की फतेह’ का जयकारा दिया। उन्होंने सब सिक्खों को आपस में भाई समझने, जाति-पाति का भेद नहीं मानने की शिक्षा दी। गुरुजी ने कहा कि खालसा वो है, जिसके अन्दर ज्ञान है तथा जिसे हर जगह परमेश्वर नजर आये।
‘प्रभ मह, मोह मैं तास महै’ ‘रचक नाहन भेद’ उनके अनुसार ‘खालसा अकाल पुरख की फौज, प्रगटियो खालसा प्रमातम की मौज’
गुरु गोबिन्द सिंह सशस्त्रधारी सुरमा भी थे, जिन्होंने अनेकों युद्ध लड़े। भगानी का युद्ध 1680, नादौन 1691, गुलेर 1696, निमोहगढ़, बसौली, सरसा व मुक्तसर सभी युद्धों में गुरु गोबिन्द सिंह ने विजय हासिल की। ‘चमकोर साहिब’ का युद्ध इतिहास में विश्व विख्यात है। जहाँ गुरु गोबिन्द सिंह के बड़े पुत्र अजीत सिंह व छोटे जुझार सिंह शहजादे ने तीन प्यारों भाई मोहकम सिंह, भाई हिम्मत सिंह व भाई साहिब सिंह के साथ 40 सिक्खों की फौज के साथ मुगलों की 10 लाख फौज के साथ वीरता से लड़ते हुए उनके हजारों सैनिकों को मौत के घाट उतारकर शहीद हुए। उन शहीदों की मृत्यु स्थल पर गुरुद्वारा कत्लगढ़ साहिब बना हुआ है, जहाँ श्रद्धालु श्रद्धा से शीश झुकाते हैं तथा चमकौर साहिब को शहीदों की धरती कहा जाता है। ‘सरहिन्द’ के वजीर खाँ ने गुरुजी के छोटे पुत्र ‘फतह सिंह’ व ‘जोरावर सिंह’ को धोखे से बंदी बनाकर हिन्दू धर्म छोडऩे का प्रस्ताव रखा व मुसलमान बनने के लिए दबाब बनाया, परन्तु दोनों भाईयों में धर्म, देशभक्ति व वीरता कूट-कूटकर भरी थी। इन्होंने मुसलमान बनना कबूल नहीं किया। इससे खफा होकर दोनों वीर बालकों को जिन्दा ही दीवार में चिनवा दिया गया। अपने चारों शाहिबजादों की कुर्बानी के बाद भी गुरु गोबिन्द सिंह ने हौंसले व वीरता से औरंगजेब की सेनाओं से युद्ध किये। परन्तु दुश्मन की एक ईन्च जगह पर कब्जा नहीं किया। वे कहते थे कि उनका मकसद युद्ध करना नहीं, संसार को सीधा रास्ता दिखाना है।
गुरु गोबिन्द सिंह एक महान साहित्यकार थे तथा उन्होंने साहित्यकारों के प्रेरक, उन्नायक एवं पोषक की भूमिका अदा की। उनके दरबार में 52 से अधिक साहित्यकार, 102 लिखारी थे तथा 9 मन ग्रन्थ का संग्रह था। गुरुजी ने बृजभाषा व हिन्दी भाषा में भारतीय संस्कृति पर साहित्य सृजन किया। उन्होंने पंजाबी में केवल एक ही काव्य ग्रन्थ की रचना की। गुरुजी साहित्यकारों, अनुवादकों व साहित्यप्रेमियों की बहुत कद्र व सम्मान करते थे। उन्होंने ‘जाप साहब’, ‘तबप्रसाद सवैये’, ‘चौपाई साहब’ आदि की रचना की। गुरुजी की सभी कृतियां ‘दशम ग्रन्थ’ में संग्रहित है।
गुरु गोबिन्द सिंह ने अपनी शिक्षाओं व संदेशों के माध्यम से अपने सिक्खों को भारतीय संस्कृति के मूल सिद्धान्तों की बात कही है। ‘देहु शिवा वर मोहि, इहै शुभ कर्मन ते कबहुँ ना टरों’ शुभ कर्मों से कभी न हटना, सत्य की रक्षा करना, असत्य के लिए शत्रु से निर्भय होकर लडऩा। गुरुजी कहा करते थे सच्चे सिक्ख का धर्म है कि वह दीन हीनों, निर्बलों पर हाथ न उठाये, स्त्री जाति का सम्मान करे व तम्बाकु का सेवन न करे। गुरुजी प्यार की मूर्त थे। उन्होंने सिक्खों को कहा कि किसी से वैर भाव न रखकर विश्व शान्ति स्थापित की जा सकती है। ‘बिसर गई सब तात परायी जब ते साध संगत मोहे पायी। ना कोई बैरी ना हि बेगाना सगल संग हमको बन आयी।’ गुरु जी सभी धर्मों का आदर करते थे। अपना पूरा जीवन धर्म व देश को समर्पित करने वाले महान गुरु गोबिन्द सिंह जी ने सन् 1708 में अपने प्राण त्याग दिये तथा मृत्यु से पूर्व अपने शिष्यों को बुलाकर ‘गुरु ग्रन्थ साहब’ के आगे नारियल व पैसे रखकर माथा नवाया तथा शिष्यों व संगत को कहा कि मेरी मृत्यु के पश्चात् शोक मत करना। मेरी मृत्यु के पश्चात् ‘गुरु ग्रन्थ साहब’ जिसमें गुरुओं व सन्तों की वाणी का संकलन है, ही सिक्खों का आध्यात्मिक मार्गदर्शन करेगा। उन्होंने प्राण त्यागने से पहले ‘वाहिगुरु जी का खालसा, वाहिगुरु जी की फतह’ का जयकारा लगाया। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके शिष्य ‘वैरागी’ ने बन्दा सिंह बहादुर बनकर पंजाब की धरती पर सिक्खों में शक्ति का जागरण किया। गुरु गोबिन्द सिंह धर्म के शत्रुओं से न केवल वीरतापूर्वक युद्ध लड़े, अपितु उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र उठाने के लिए भी प्रेरित किया। गुरुजी की वीरता के बारे में इतिहासकार यहाँ तक लिखते हैं कि ‘गुरु गोबिन्द सिंह’, ‘महाराणा प्रताप’ व ‘शिवाजी’ जैसे महापुरुष न होते तो हिन्दू धर्म-संस्कृति का दीपक बुझ गया होता। ऐसे महान सन्त गुरु गोबिन्द सिंह धन्य हैं। ‘वाहिगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतह’
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