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    Jayanti special : विवेकानन्द जयन्ती (12 जनवरी, 2023) पर विशेष

    उठो, जागो और लक्ष्य की प्राप्ति तक मत रूको’ का संदेश देने वाले युवाओं के प्रेरणा स्त्रोत स्वामी विवेकानन्द

     

    स्वामी विवेकानन्द महान शिक्षाविद्, महान चिंतक व महान राष्ट्रभक्त थे, जिन्होंने अपने आध्यात्मिक क्रांतिकारी विचारों से न केवल भारत अपितु सारे संसार को चमत्कृत किया। स्वामी जी ब्रह्मचार्य, दया, करूणा आदि मानवीय गुणों के मूर्त रूप थे। उनकी तर्क शक्ति अद्वितीय थी। उन्होंने युग प्रवर्तक तथा युग दृष्टा की भूमिका निभाकर भारतीय अध्यात्म को व्यवहारिक रूप से जनमानस के समक्ष प्रस्तुत किया और नवयुवकों के लिये पथ प्रदर्शन कर आध्यात्मिक जीवन का मार्ग निर्धारित किया। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे तथा उन्होंने मात्र 18 वर्ष की आयु में संसार के सभी ग्रंथों व पंथों का अध्ययन किया। 

    उन्हें काव्य दर्शन, तैराकी, घुड़सवारी, बॉक्सिंग, कुश्ती आदि में महान रूचि थी। स्वामी विवेकानन्द का जीवन आदर्शों से भरा हुआ था। उनकी प्रमुख शिक्षायें ‘मुसीबतों से डरें नहीं उनका सामना करें, दिखावे से दूर रहें एवं अपनी मंजिल खुद तय करें, दूसरों के पीछे भागे नहीं, सफलता के लिए एकाग्रता आवश्यक है, दूसरों को देने से आनन्द की अनुभूति होती है तथा आत्मविश्वास ही भावी उन्नति की सीढ़ी है’ सदा समाज के लिए प्रेरणादायक रहेगी। विवेकानंद नारी स्वतंत्रता व नारी शिक्षा के प्रबल समर्थक थे।  

    स्वामी विवेकानन्द ने कहा था ‘जवानों उठो, जागो और तब तक नहीं रूको, जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।’ स्वामी विवेकानन्द जन्म से ही कुशाग्रबुद्धि और प्रतिभाशाली थे, जिन्होंने भारत की ज्ञान ज्योति सारी दुनिया में फैलायी तथा भारत के प्राचीनतम् गुरु पद को एक बार फिर जागृत करने का प्रयास किया। उनके जीवन का उद्देश्य ज्ञान के क्षेत्र में विश्व विजय करना था। विवेकानन्द के अनुसार - ‘बिना अनुभव के कोरा शाब्दिक ज्ञान अंधा है।

    स्वामी विवेकानन्द उन्नत कल्पनाशील कवि हृदय मनीषी थे, जिनकी इच्छा एक ऐसे धर्म का प्रचार करना था, जिससे ‘मनुष्य तैयार हो’ तथा धर्म पर किसी विशेष वर्ग का एकाधिकार न हो तथा ऊंच-नीच के भेद के बिना वर्ग विहीन समाज की स्थापना हो। उन्होंने कहा था कि सभी धर्मों के झण्डों पर लिख दो - युद्ध नहीं, ध्वंस नहीं, असहमति नहीं, सिर्फ आपसी सहमति व सामंजस्य स्थापित करना। स्वामी जी ने कहा था कि भारतवासियों को उच्च शिक्षित, स्वावलम्बी, स्वाभिमानी बनाकर समृद्धिशाली महान राष्ट्र बनाना है। उन्होंने स्वदेश प्रेम का बीज अंकुरित किया। वे कहते थे कि मनुष्य को जीवनभर सीखते रहना चाहिए, चरित्र अनमोल पूंजी है, जिसका निर्माण हजारों ठोकरें खाने के बाद होता है।

    12 जनवरी, 1863 को जन्मे विवेकानन्द के बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। वे इन्द्र के समान सुंदर, साहसी व शक्तिशाली थे, जो बाद में स्वामी विवेकानन्द के नाम से विख्यात हुए। उन्होंने बाल्यावस्था में चमत्कारी व आलौकिक चमत्कार दिखाए। माता-पिता के संस्कारों और धार्मिक वातावरण के कारण उनके मन में बचपन से ही ईश्वर को जानने और उसे प्राप्त करने की लालसा दिखाई देने लगी थी। वे पढऩे-लिखने में तेज तथा उन्हें काव्य व संगीत से बड़ा प्रेम था। वे मधुर कंठ से गीत गाते थे। 

    वे युवावस्था में ही बड़े कोमल हृदय के थे तथा दूसरों के दुखों को सहन नहीं कर पाते थे। वे जब रामकृष्ण परमहंस के सम्पर्क में आए तो परमहंस ने कहा - ‘नरेन्द्र तुम सप्तर्षि मण्डल के एक नक्षत्र हो, जो धरती के भाग्य से उसकी गोद में आ गए हो।’ रामकृष्ण परमहंस ने प्रथम भेंट में ही नरेन्द्र को अपना बना लिया तथा अपनी सारी आध्यात्मिक सम्पदा उन्हें प्रदान कर दी। रामकृष्ण के उपदेशों का नरेन्द्र पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा वे घर छोडक़र सन्यासी बन गए। उनका जीवन बदल गया तथा नाम विवेकानन्द हो गया। विवेकानन्द ने युवाओं को सद्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया तथा रामकृष्ण परमहंस के निधन के बाद उन्होंने उत्तर से हिमालय तथा दक्षिण से कन्याकुमारी तक भ्रमण किया। वे केवल एक संत ही नहीं, एक महान देशभक्त, वक्ता, विचारक, लेखक और मानव प्रेमी भी थे।

     

    स्वामी जी ने सन्यास के बारे में कहा था - सच्चा सन्यासी वही है, जो दूसरों के हित में अपने प्राणों की बलि दे सके। गरीब व विधवाओं के आंसू पोंछ सके तथा अशिक्षित समुदाय को जीवन संग्राम के योग्य बना सके। उन्होंने भारतीय जीवन में वेदांत प्रयोग, भारतीय महापुरूष गण, हमारा वर्तमान कर्तव्य तथा भारत का भविष्य नामक महत्वपूर्ण भाषण दिये तथा इन भाषणों से सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक क्रांति के लिये युवाओं का आह्वान किया। उन्होंने युवाओं में नई स्फूर्ति और संचेतना का संचार किया तथा युवाओं को भारतीय धर्म, दर्शन व अध्यात्म की ओर मोड़ा।

    सन् 1893 में शिकागो, अमेरिका के विश्व धर्म सम्मेलन में उन्होंने हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व किया तथा उन्होंने शून्य विषय पर 19 दिसम्बर, 1893 में भाषण दिया तथा उपस्थित जन समुदाय को ‘भाइयों और बहनों’ कहकरसम्बोधित करते हुए भारतीय संस्कृति और परम्परा पर भाषण दिया और कहा कि भारतीय संस्कृति दुनिया की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक हैं तथा हिन्दु धर्म दुनिया का सबसे उदार धर्म है। उनका भाषण इतना प्रभावशाली था कि सैंकड़ों अमेरिकन स्त्री-पुरुष उनके भाषण पर मुग्ध होकर उनके शिष्य बन गए। 

    उनके भाषण के उपरांत ‘न्यूयार्क हेराल्ड’ समाचार-पत्र ने लिखा - ‘शिकागो धर्म सभा में विवेकानन्द ही सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति हैं। हिन्दू धर्म और विज्ञान के पंडित विवेकानन्द ने मानो धर्म सभा को सम्मोहित एवं मंत्रमुग्ध कर दिया कि कट्टरपंथी इसाईयों ने उन्हें ‘अति मानव’ (सुपरमैन) की संज्ञा दी। लगातार 2 वर्ष तक अमेरिका के अनेक शहरों में उन्होंने आध्यात्मिक भाषण दिए, जिससे प्रभावित होकर उनके अनेकों शिष्य बने। वे अमेरिका से युरोप, इंग्लैण्ड, न्यूयॉर्क भी गए, जहाँ उन्होंने अपने भाषणों से सबको चमत्कृत कर दिया तथा न्यूयॉर्क में प्रथम वेदान्त सोसायटी की स्थापना की। स्वामी जी की महानता से प्रभावित होकर पूरे शिकागो शहर में रातों-रात उनके पोस्टर लग गए।’ गुरुदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर ने एक बार कहा था - ‘यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानन्द को पढिय़े। उनमें सब कुछ सकारात्मक ही मिलेगा।’  

    अमेरिका से लौटने के पश्चात् विवेकानन्द ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। भारत के सभी नगरों में इसकी शाखाऐं खोली गई। भारत में शाखाएं खोलने के बाद, वे पुन: अमेरिका गए, वहां भी रामकृष्ण मिशन की शाखाएं स्थापित की। इसके पश्चात् युरोप के कई देशों का परिभ्रमण किया और मिशन की कई शाखाएं खोली। उन्होंने मिशन की 130 से अधिक शाखाएं खोली। विवेकानन्द ऐसी राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था स्थापित करना चाहते थे, जिस पर विदेशी शासन तंत्र का हस्तक्षेप ना हो। उन्होंने भगवत गीता के निष्काम कर्म के आदर्श का मनुष्य जीवन में अनुसरण करने का उपदेश दिया। विवेकानन्द कायर मनुष्यों के लिए कहा करते थे कि यह संसार कायरों के लिए नहीं है। 

    उन्होंने कहा था कि मनुष्य अपने अन्दर विश्वास पैदा करके ब्रह्माण्ड में कुछ भी कर सकता है। उनके अनुसार कोई भी कार्य तुच्छ नहीं है। किन्तु बुद्धिमान व्यक्ति वही है, जो प्रत्येक कार्य को अपना लिए रूचिकर बना ले। विवेकानन्द के अनुसार इस देश की अवनति व सारे दुख-कष्टों के लिए हम स्वयं उत्तरदायी हैं। धर्म और रोटी के बारे में विवेकानंद कहते हैं - ‘पहले रोटी, पीछे धर्म, भूख की अग्नि को धर्म कभी भी शांत नहीं कर सकता।’ स्वामी जी के कथनानुसार ‘आप दूसरों को तभी ऊपर उठा सकते हैं, जब तुम खुद ऊपर उठ चुके हो।’ ‘पवित्रता, धैर्य व मेहनत से हर बाधा खत्म हो जाती है। हम अपना भाग्य खुद बनाते हैं। प्रेम ही जीवन है।’

    विवेकानन्द ने कहा था - ‘मुझे अपने देश पर गर्व है कि मैंने इस देश की धरती पर जन्म लिया।’ उन्होंने जनता को हिन्दु धर्म का संदेश दिया। स्वामी जी के आध्यात्मिक एवं बौद्धिक राष्ट्रवाद से महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरु, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सुभाषचन्द्र बोस, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, श्री अरविन्द आदि बहुत प्रभावित थे। स्वामी जी ने कहा था कि मुझे बहुत से युवा सन्यासी चाहिये, जो ग्रामों में फैलकर देशवासियों की सेवा में खप जायें। विवेकानन्द ने पुरोहितवाद, ब्राह्मणवाद, धार्मिक कर्मकाण्ड और रूढिय़ों की खिल्ली भी उड़ाई और अपनी आक्रमणकारी भाषा में ऐसी विसंगतियों के खिलाफ संघर्ष किया। उनके अनुसार शक्ति का दुरूपयोग ही दुखों का कारण बनता है। 

     

    विवेकानन्द ज्ञान और हर्ष की ज्योति थे, वे नर होते हुए भी नारायण के समान थे। महान कर्मयोगी, ज्ञानयोगी, भक्ति योगी, समाज सुधारक, दीन दुर्बलों के सेवक स्वामी विवेकानन्द का 39 वर्ष की अल्पायु में निधन हो गया। अल्पायु में ही उन्होंने सारी दुनिया में महान् भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की पताका फहरायी। सन् 1984 में भारत सरकार ने उनके जन्मदिवस को युवा दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की, तब से उनके जन्मदिवस को युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। स्वामी जी युवाओं के प्रेरणा स्त्रोत थे। आज के युवाओं को उनके आदर्शों पर चलकर चरित्र निर्माण कर, स्वावलम्बी व सच्चा इंसान बनकर, भारतीय संस्कृति की पताका सारे विश्व में फहराने का संकल्प लेना चाहिये।      


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