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    युग पुरूष स्वामी विवेकानन्द के महान गुरू युग चेतना के सूत्रधार दिव्यात्मा स्वामी रामकृष्ण परमहंस , 21 फरवरी को स्वामी रामकृष्ण परमहंस की जयंती पर विशेष




    युग पुरूष स्वामी विवेकानन्द के महान गुरू युग चेतना के सूत्रधार दिव्यात्मा स्वामी रामकृष्ण परमहंस ‘धर्म अनुभव की वस्तु है, पाठ या विचार की नहीं’ कहने वाले रामकृष्ण परमहंस भारत के महान संत, उच्च कोटि के साधक एवं विचारक थे, जिन्होंने सनातन संस्कृति के अभ्युत्थान के प्रति जनमानस में श्रद्धा एवं विश्वास का बीजारोपण किया तथा उसे पल्लवित व पुष्पित करने का मार्ग प्रशस्त किया। रामकृष्ण परमहंस एक महान अवतारी विभूति थे।  जब भारतीय धर्म व संस्कृति संकट और चुनौतियों से होकर गुजर रही थी, उस समय रामकृष्ण परमहंस ने हिन्दु धर्म की  विशेषता, भव्यता तथा शक्ति के प्रति भारतीयों को जागरूक किया। उन्होंने न केवल हिन्दु धर्म को संकट से उबारा, अपितु सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस के बचपन का नाम गदाधर था, जिनको अपने माता-पिता से मिले संस्कारों के कारण उनकी सभी धर्मों के प्रति पूर्ण आस्था थी। रामकृष्ण परमहंस को बचपन में ही विश्वास था कि ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं। 



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    अत: ईश्वर की प्राप्ति के लिये उन्होंने कठोर साधना और भक्ति का जीवन बिताया। साधना के द्वारा, वे इस निष्कर्ष पर पहुंचें कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं तथा उनमें कोई भिन्नता नहीं, वे ईश्वर तक पहुंचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं। पांच वर्ष की आयु में गदाधर का पाठशाला में प्रवेश हुआ तथा कुशाग्र बुद्धि का होने के कारण थोड़े समय में ही उन्होंने लिखना-पढऩा सीख लिया। बचपन में ही उनकी रूचि चित्र, आकृतियां तथा देवी-देवताओं की प्रतिमाएं बनाने में थी। इन्हें भजन व गीत गाने की रूचि थी। इनकी बाल सुलभ सरलता और मंत्र-मुग्ध मुस्कान से हर कोई सम्मोहित हो जाता था। जब इनको पढऩे के लिए प्रेरित किया जाता था तो गदाधर अपने बड़े भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय से कहते थे कि ‘मैं ऐसा ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूं, जो मन को जागृत करे और सदा सर्वदा बना रहे।’ भाई की मृत्यु के पश्चात् इन्हें मंदिर का पूजारी नियुक्त किया गया। वे पूर्ण मनोयोग से काली माँ की पूजा-आराधना में तल्लीन हो गये। इन्हें रामकृष्ण नाम से जाना जाने लगा। वे काली मूर्ति को अपनी माता और ब्रह्माण्ड की माता केरूप में देखते थे। कहा जाता है कि रामकृष्ण को काली माता के दर्शन ब्रह्माण्डकी माता के रूप में हुये थे। माँ के दर्शन के पश्चात्, वे एक शांत व सुरम्य वाटिका पंचवटी में योग लगाकर ध्यान व तप में मग्न रहते थे। 1859 में शारदा नामक 6 वर्षीय कन्या से इनका विवाह हुआ। 


    बाद में वे दक्षिणेश्वर में रहने लगे, जहां भैरवी ब्राह्मणी से इन्होंने तंत्र-मंत्र साधना की शिक्षा ली। उन्होंने नागा साधु श्री तोतापुरी से वेदांत साधना की शिक्षा ली तथा जीवन्मुक्त की अवस्था को प्राप्त किया। सन्यास ग्रहण करने के पश्चात् उनका नाम रामकृष्ण परमहंस हुआ। इसके बाद इन्होंने इस्लाम और क्रिश्चियन धर्म की भी साधना की। रामकृष्ण का आध्यात्मिक दर्शन व्यापक तथा व्यवहारिक था। विश्व में अनेक धर्मों के सम्बन्ध में उनका कथन था कि ‘ईश्वर एक है और उसकी ओर जाने वाले मार्ग अनेक हैं।’ उनका कथन था कि ‘जितने मत हैं, उतने पथ है।’ स्वामी जी कहते थे कि ‘धर्म अनुभव की वस्तु है।’ वे सदैव आचरण की पवित्रता तथा व्यक्तित्व के चरित्र का होना अनिवार्य मानते थे। उनके अनेक शिष्य थे, जिसमें प्रमुखत: नरेन्द्र थे, जो आगे चलकर विश्व में विवेकानन्द के नाम से विख्यात हुये और जिन्होंने पूरे विश्व में हिन्दू धर्म ध्वजा को फहराकर समस्त मानव जाति के हृदय में हिन्दू धर्म के प्रति श्रद्धा का संचार किया।



    रामकृष्ण की वाणी, चिंतन व चरित्र तथा व्यवहार का ही चमत्कार और प्रभाव था कि नरेन्द्र ने रामकृष्ण परमहंस का गुरू के समान वरन् किया। रामकृष्ण अपने शिष्यों को माता के समान दुलार देते थे। उनके पास प्रसिद्ध लोग आते थे, जैसे ब्रह्मसमाज के प्रमुख नेता केशवचन्द्र सैन इनके भक्त थे। उन्होंने रामकृष्ण के संदेश सम्पूर्ण भारत में प्रचारित व प्रसारित किये।



    रामकृष्ण के वचनों में भारत के सनातन चिन्तन तथा दर्शन की स्पष्ट अभिव्यक्ति होती थी। उनके उपदेश संकीर्णता के दायरे से बाहर थे। उनका कथन था कि जिस प्रकार सरोवर में कई घाट होते हैं, एक घाट के पानी को कलश में भरकर हिन्दू उसे ‘जल’ कहते हैं, दूसरे घाट में मुसलमान मशक में भरकर उसे ‘पानी’ पुकारते हैं और तीसरे घाट में ईसाई उसे ‘वाटर’ कहते हैं। इस प्रकार पदार्थ एक ही है, उसके नाम अलग-अलग हैं। इसी प्रकार से ईश्वर एक गहरा महासागर है, हम सभी उसकी लहरें हैं। हमारे सभी के अंदर ईश्वर का अंश समाया हुआ है वे छोटी-छोटी कहानियों के माध्यम से लोगों को नेक राह पर चलने की शिक्षा देते थे। उनकी शिक्षा आधुनिकता और राष्ट्र की आजादी के बारे में नहीं थी। उनके आध्यात्मिक आन्दोलन ने देश में राष्ट्रवाद की भावना को बढ़ाने का काम किया।  



    रामकृष्ण संसार को माया के रूप में देखते थे। उनकी अनुसार अविद्या माया के कारण मनुष्य में काम, क्रोध, लालच, क्रुरता व स्वार्थी कर्म जागृत होकर मनुष्य जन्म व मृत्यु के चक्कर में फंसता है तथा विद्या माया से सृजन शक्तियां जैसे निस्वार्थ कर्म, अध्यात्मिक ज्ञान आदि जागृत होते हैं, जो मनुष्य को ऊंचे स्तर पर ले जाते हैं। रामकृष्ण यद्यपि काली देवी के भगत थे, पर वे अन्य सम्प्रदायों के प्रति भी समान आदर का भाव रखते थे। उन्होंने भक्ति मार्ग की विविध शाखाओं की साधना करके यही निष्कर्ष निकाला कि सभी सम्प्रदायों का अंतिम परिणाम ईश्वर की प्राप्ति ही है। रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि संसार में पिता और माता की सेवा ही मानव धर्म है।



    रामकृष्ण परमहंस धार्मिक प्रवृत्ति के थे एवं मानवता के पूजारी थे। उनका अन्तर्मन अत्यन्त निर्मल, सहज और विनयशील था तथा वे पतित लोगों को भी अपनी सहनशीलता और परोपकार वृत्ति के द्वारा ऊंचा उठा देते थे। परमहंस ने प्रत्यक्ष रूप से समाज सुधार व देश उद्धार का कोई खास आंदोलन नहीं चलाया, परन्तु अंतरंग रूप से ऐसी शक्तियों को प्रेरित किया, जिससे अनेक व्यक्तियों ने देश तथा समाज के पुनर्निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वे महान होकर भी साधारण थे तथा उन्हें धनवान मनुष्यों से एक प्रकार की विरक्ति थी। वे अपने शिष्यों से संसार त्याग करने को नहीं कहते थे। धर्म के बारे में कहते थे कि ग्रंथों का विवेक वैराग्य युक्त अन्त:करण से पाठ न किया जाए तो हृदय में दांभिकता, अहंकार आदि की गांठ ही पक्की हो जाती है। 



    वास्तव में स्वामी रामकृष्ण परमहंस एक महान दिव्य आत्मा थी, जिन्होंने विदेशी शक्तियों के प्रभाव में विलुप्त होती जा रही भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता को एक नई दिशा प्रदान कर हिन्दू धर्म को मात्र स्वदेश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी महत्वपूर्ण स्थान दिलाने में अहम् भूमिका निभाई। उनके शिष्य स्वामी विवेकानन्द ने अथक प्रचार करके ‘श्री रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की, जो उनके उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आज तक जन सेवा और जन जागरण की अनेकों योजनाओं को क्रियान्वित कर रहा है। रामकृष्ण परमहंस ने आत्मज्ञान, ईश्वर, माया संसार, जीवन की अवस्था भेद, धर्म के बारे में, संसार व साधना, साधना का कौन अधिकारी, उत्तम भक्त, भिन्न प्रकार के साधक, कर्मफल, युग धर्म के बारे में धर्मोपदेश देकर मनुष्य जीवन के मर्म को समझाने का प्रयास किया है। ऐसे महान धर्म उपदेशक के उपदेशों, विचारों व दर्शन को मानव जीवन में आज उतारने की जरूरत है। 




    मनीराम सेतिया  
    सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य
    109 एल ब्लॉक, श्रीगंगानगर
    मो. 98871-22040

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