Jayanti special, : 12 फरवरी को महर्षि दयानंद सरस्वती की जयंती पर विशेष
आर्य समाज के संस्थापक, युग प्रवर्तक, महान मनीषी महर्षि दयानंद सरस्वती
‘वेदों की ओर लौटों’ का नारा देकर भारत व हिन्दू धर्म को नवजीवन प्रदान करने वाले महर्षि दयानन्द सरस्वती आधुनिक भारत के महान चिन्तक, समाज सुधारक, वेद व आर्य ग्रन्थों के प्रकाण्ड पण्डित, सत्य के उपासक एवं आर्य समाज के संस्थापक थे, जिनका बचपन का नाम मूलशंकर था। उन्होंने भारत के राजनैतिक, सामाजिक, शैक्षिक और दार्शनिक चिंतन को व्यवहारिक, तार्किक स्वरूप प्रदान किया तथा अपने व्यक्तित्व, विचारों की दृष्टि से, वे एक सन्यासी, क्रान्तिकारी, यौद्धा, देशभक्त एवं महान योगी थे, जिन्होंने भारत की संस्कृति को जीवित रखा एवं समाज को नई दिशा दिखाई। स्वामी जी ने भारतीय राजनीतिक स्वतंत्रता की नींव रखी तथा आर्य समाज की स्थापना कर देशभर में देशभक्ति एवं राष्ट्रप्रेम की भावना को फैलाया।
उन्होंने शुक्ला, यजुर्वेद, पूर्व मीमांसा तथा कर्मकाण्ड से सम्बन्धित कई ग्रंथों का अध्ययन कर मूर्ति पूजा और धार्मिक कर्मकाण्ड का घोर विरोध किया। उनकी वाकपटुता, अत्यन्त मोहक तर्कशक्ति, मानवतावादी दृष्टिकोण व स्पष्टवादिता के कारण, उन्होंने सुषुप्त जनता में दिव्य मानसिक चेतना एवं राष्ट्रीय भावना जागृत की। स्वामी जी ने संसार को अज्ञान व अंधविश्वास से मुक्त कराने के लिये वेदों के अनुसरण पर जोर दिया तथा वेदों को पूर्ण रूप से आत्मसात किया एवं विज्ञान व धर्म में समन्वय स्थापित किया। उन्होंने परमात्मा के सत्य स्वरूप को जाना और इसी का संसार में प्रचार किया। स्वामी जी ने सन् 1875 में आर्य समाज की स्थापना की, जिसका उद्देश्य सत्य ज्ञान का प्रचार व प्रसार करना, पाखण्ड व अंध विश्वासों को जड़ से मिटाना तथा शारीरिक, आत्मिक व सामाजिक उन्नति करना था। स्वामी जी ने शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया तथा अनेक संस्कृत की पाठशालाओं की स्थापना की। आर्य समाज के अनेक गुरूकुल, विद्यालय व कॉलेज खुलवाये, जो वर्तमान में शिक्षा के क्षेत्र में पूरे देश में कीर्ति स्थापित किये हुये हैं। स्वामी जी द्वारा स्थापित आर्य समाज में बनाये गये नियमों को जीवन में आत्मसात करके पूरे राष्ट्र एवं विश्व में शान्ति स्थापित की जा सकती है।
स्वामी जी ने ‘वेदों की और लोटो’ का नारा दिया तथा कहा कि वेदों को छोडक़र और कोई भी अन्य ग्रंथ प्रमाणित नहीं है तथा वैदिक ज्ञान से जनता को परिचित करवाया। उन्होंने वेदों के आधार पर निराकार ईश्वर की पूजा का विधान बतलाया। महर्षि दयानन्द राष्ट्रवाद के जनक थे। दादा भाई नौरोजी के अनुसार ‘मैंने स्वराज्य शब्द सर्वप्रथम महर्षि दयानंद जी के ग्रन्थों से सीखा।’ स्वामी जी ने स्वदेश प्रेम, स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग, स्वभाषा, स्वधर्म एवं स्वराज्य की अवधारणायें प्रस्तुत की। स्वामी जी ने सामाजिक कुरीतियों जैसे मूर्ति पूजा, बहुदेव उपासना, बाल विवाह, सती प्रथा, भ्रूण हत्या, गर्भपात, अस्पृश्यता, धार्मिक भेदभाव आदि का घोर विरोध किया और धर्म के नाम पर पाखण्डों का खण्डन करने के लिए 1863 में ‘पाखण्ड खण्डिनी पताका’ लहराई। उन्होंने विधवा विवाह व स्त्री जाति की शिक्षा का समर्थन किया तथा अनुसूचित व जनजातियों को ऊंचा उठाने के लिये तथा छुआछुत का समाप्त करने के लिये अथक प्रयास किये एवं उनको शिक्षा का अधिकार दिलाया।
स्वामी जी असत्य का खण्डन व सत्य का प्रतिपादन निर्भीक होकर करते थे, उनका कहना था कि ‘सत्य के लिये कारावास कोई लज्जा की बात नहीं है।’ महर्षि के अनुसार ब्रह्मचर्य सब आश्रमों का मूल है, वे स्वयं बाल ब्रह्मचारी थे तथा युवाओं को ब्रह्मचार्य का पालन, योग बल को अपनाने के लिये प्रेरित करते थे। स्वामी जी गौ हत्या के खिलाफ थे। उन्होंने ‘गौकरूणा निधि’ नामक पुस्तिका प्रकाशित की। गौ रक्षा के लिये आन्दोलन चलाये तथा कई गौशालायें स्थापित की। स्वामी जी ने नारी सम्मान के बारे में लिखा है कि ‘नारी न केवल गृहस्थ जीवन की अपितु मान व सम्मान की आधारशिला है, अत: उसका सुशिक्षित, सभ्य व सुसंस्कृत होना अनिवार्य है। उन्होंने स्त्री जाति को शिक्षा प्राप्त करना व वेद अध्ययन का अधिकार दिलाया तथा स्त्रियों को समान अधिकार दिये जाने, विधवा व पुनर्विवाह का समर्थन किया।
स्वामी जी ने हिन्दी भाषा के उत्थान के लिये अपूर्व योगदान किया। वे हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के पक्ष में थे। परन्तु अन्य भाषाओं के अध्ययन के विरूद्ध नहीं थे। दयानंद का दृष्टिकोण मानवतावादी था। उन्होंने आर्य समाज के छठे नियम संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, को सम्मिलित किया। उनका वैदिक उद्घोष ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ सारे विश्व को श्रेष्ठ बनाओ से विश्व प्रेम का संकेत दिया।
स्वामी दयानन्द विश्व के पहले दार्शनिक, वैदिक धर्मवेत्ता एवं तुलनात्मक धर्मों के प्रकाण्ड विद्वान थे जिन्होंने न केवल हिन्दू धर्म में आई कुरीतियों एवं अवैदिक मान्यताओं की आलोचना की, बल्कि ईसाई, इस्लाम, जैन, बौद्ध आदि मतों की मान्यताओं की भी तर्कों, निष्पक्षता और सत्य के आधार पर स्पष्ट आलोचना की।
महर्षि को गुरू विरजानंद जी का आशीर्वाद प्राप्त हुआ तथा उन्होंने गुरू जी से पातंजल, योग शास्त्र, पाणिणी व्याकरण तथा वेद वेदांग का अध्ययन किया। स्वामी जी ने धार्मिक व सामाजिक पुस्तकें लिखी। हिन्दी को उन्होंने आर्य भाषा का नाम दिया। उनकी पुस्तकों में सत्यार्थ प्रकाश एक अद्भुत ग्रंथ है। इसमें कुल 15 सम्मुल्लास है। अनेक भाषाओं में मिलने वाला यह ग्रन्थ अनेक धर्म ग्रन्थों तथा वेदों का साक्षात्कार करता है। यह ग्रन्थ गागर में सागर है। इसी प्रकार वेदांग प्रकाश, संस्कार विधि, गोकरूणा निधि, व्यवहार भानु, स्वीकारपत्र, संस्कृतवाक्य प्रबोध, पंच महायज्ञ विधि आदि अनेक पुस्तकें स्वामी जी ने प्रकाशित की, जो मानव जीवन को जीने की सही राह दिखाती हैं।
स्वामी जी को षड्यंत्र द्वारा विष देने से 30 अक्टूबर, 1883 को दीपावली के दिन उनकी मृत्यु हो गई। राष्ट्रीय पुनर्जागरण, सांस्कृतिक पुनरूत्थान के अग्रदूत, सामाजिक कुरीतियों व अन्धविश्वास के उन्मूलक, वेदधारक महर्षि दयानन्द आज हमारे बीच नहीं है। लेकिन जनहित, देशहित के लिये किये गये कार्यों के लिये, वे सदैव प्रेरणा स्त्रोत, वन्दनीय तथा स्मरणीय रहेंगे। उनको शिक्षा के क्षेत्र एवं नारी उत्थान में युगदृष्टा, महान क्रांतिकारी, महान संत तथा देशभक्त के रूप में, उनकी भूमिका को युगों-युगों तक याद किया जायेगा।
कोई टिप्पणी नहीं
एक टिप्पणी भेजें